चौबे जी राजनीतिक बनवास या बड़े भूमिका की पृष्ठभूमि

 चौबे जी राजनीतिक बनवास या बड़े भूमिका की पृष्ठभूमि 



बक्सर से बीजेपी ने अश्विनी चौबे का टिकट काटा है। अश्विनी चौबे के साथ ही छेदी पासवान का सासाराम से, अजय निषाद का मुजफ्फरपुर से और रामा देवी का शिवहर से अलग अलग वजहों से टिकट कटा। 

इन चारों नाम में सिर्फ एक अश्विनी चौबे ही वो नेता हैं जो मूल भाजपाई है।बाकी तीनों आते जाते और यहां वहां से आकर बीजेपी से सांसद बने। 

अश्विनी चौबे के टिकट काटने की वजह परफॉर्मेंस बताई जा रही है।लेकिन बात सिर्फ इसकी नहीं है।पहले से चर्चा थी कि बीजेपी सीनियर नेताओं के टिकट काटेगी।

अश्विनी चौबे 2014 में भागलपुर से चुनाव लड़ने बक्सर भेजे गए थे।तब लाल मुनि चौबे का टिकट काटा गया था। मोदी लहर थी चौबे जी बिहार में बीजेपी के पोस्टर बॉय में से एक थे चुनाव जीत गए।

उस वक्त गिरिराज और चौबे जी दो ऐसे नेता थे जो मोदी के समर्थन में सबसे ज्यादा आक्रामक थे।जीते तो गिरिराज और चौबे दोनों राज्य मंत्री बने। इन दोनों के जरिए बीजेपी के नए नेतृत्व ने सुशील मोदी कैंप को बैलेंस करने की कोशिश की।खैर पहली बार दोनों राज्यमंत्री बने।2019 में दोबारा जीत मिली तो गिरिराज कैबिनेट मंत्री बन गए जबकि चौबे जी को गिरिराज सिंह के बराबर का कद नहीं मिल पाया।बीच में मंत्रालय बदला सो अलग। 

गिरिराज और अश्विनी चौबे की तुलना करते हुए स्टोरी इसलिए बता रहा हूं क्योंकि 2014 में यही वो दो नेता थे जो नीतीश और लालू को लेकर बहुत आक्रामक रहते थे। जहां तक बीजेपी की राजनीति में मिलने की बात है तो अश्विनी चौबे सांसद बनने से पहले 5 बार विधायक रहे। कभी चुनाव हारे नहीं।1995 में जब लालू की लहर थी उस लहर में हिंदुत्व का पोस्टर बॉय बनकर उभरे और भागलपुर शहर से विधायक बने।फिर 2014 तक विधायक रहे और उसके बाद बक्सर आकर सांसद बन गए।

बिहार में नीतीश सीएम बने तो स्वास्थ्य मंत्री भी रहे।बिहार में बड़े मंत्रालय की जिम्मेदारी संभाली।आउटपुट क्या रहा ये अतीत के पन्ने में दर्ज है। 

बिहार की राजनीति में गिरिराज से बड़े और पुराने नेता रहे। गिरिराज 2002 में एमएलसी बने और 2014 में सांसद बने।अभी पिछले दिनों गिरिराज और अश्विनी चौबे दोनों का अपने अपने क्षेत्र में विरोध हुआ।गिरिराज हिंदुत्व का आक्रामक चेहरा बनकर सीट बचा ले गए।अश्विनी नहीं बचा पाए। 

अश्विनी चौबे बिहार बीजेपी को स्थापित करने वाले नेताओं में से रहे।सुशील मोदी की तरह इनका करियर है या खत्म हो गया ये नहीं पता लेकिन बीजेपी की अंदरूनी राजनीति के फेर में समय से पहले निपटा दिए गए।अश्विनी चौबे को रिप्लेस किया मिथिलेश तिवारी नाम के नेता ने।जो एक बार एमएलए रहे हैं।संगठन और गोपालगंज और बिहार की मीडिया से बाहर कोई नहीं जानता।ये भी ब्राह्मण हैं।बैकुंठपुर से विधायक रहे। एक दो बार हारे भी हैं।फिलहाल महासचिव की हैसियत से बीजेपी के बिहार संगठन में सक्रिय थे। 

अश्विनी को रिप्लेस कर मिथिलेश बक्सर के भाजपाई का दिल जीत पाएंगे इसमें मुझे थोड़ा संदेह हैं।पार्टी बड़ी है लिहाजा धन बल की कमी नहीं होगी।लेकिन मुकाबला सुधाकर सिंह से होने वाला है।ददन पहलवान मैदान में किसी पार्टी से आते हैं तो ब्राह्मण,भूमिहार,वैश्य,अति पिछड़ी जातियों के एकमुश्त वोट से जीत जायेंगे। बीएसपी यहां एक मजबूत दलित नेता को लड़ाने की तैयारी में है।बीजेपी से पूर्व आईपीएस गुप्तेश्वर पांडेय प्रयासरत थे।लोग कह रहे हैं कि कुछ बिगाड़ नहीं पाएंगे निर्दलीय या किसी और दल से आए तो। 

अश्विनी चौबे बाहरी थे विदा हो गए अब क्या करना बक्सर जाकर इस मोड में जा सकते हैं।ब्राह्मणों में अलग अलग कैटगरी है या नहीं ये तो नहीं पता लेकिन भूमिहार वोटर मिथिलेश तिवारी को पचा नहीं पाएंगे।ऐसे में मिथिलेश तिवारी बक्सर जैसी सीट पर बीजेपी की हल्की च्वायस हैं।बाकी जब बात मोदी के नाम की होगी तो किसी को भी वोट मिल जायेगा।मिथिलेश भी इसी भरोसे होंगे।वैसे चौंकाने वाली बात ये है कि चार लाख ब्राह्मण आबादी वाले बक्सर में बीजेपी एक लोकल ब्राह्मण नेता संगठन के लेवल पर भी खड़ा नहीं कर पाई।ये वहां के लोगों के मन में टीस होगी।

वैसे मुझे लगता है बीजेपी नेतृत्व ने उनके लिए कुछ अलग सोचा होगा।कोई नई भूमिका।गवर्नर टाइप। राज्यसभा भी भविष्य में। वैसे पक्के तौर पर क्या ही कहा जाए।

फिलहाल बक्सर की लड़ाई में बीजेपी उम्मीदवार के स्तर पर कमजोर दिख रही है।लेकिन एक सत्य ये भी है कि बक्सर बीजेपी का गढ़ है।2009 में जगदानंद सिंह राजद से जीते थे।नहीं तो लालमुनि चौबे उनसे पहले 4 बार लगातार बीजेपी से जीते।दो बार से अश्विनी चौबे ही थे। केके तिवारी, रामानंद तिवारी जैसे कभी बड़े ब्राह्मण नेता रहे लोग भी जीते हैं।

यहां ब्राह्मण करीब 4 लाख हैं।राजपूत 3 लाख से ज्यादा, यादव भी इतने के आसपास। 2 से 2.5 लाख भूमिहार भी हैं। बाकी 5-6 लाख में वैश्य और बाकी obc, ebc और मुस्लिम।

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