पाणिनि भाषा के इतिहास में युग प्रवर्तन का कार्य

 पाणिनि-भाषा के इतिहास में युगप्रवर्तन का कार्य-भाग-1
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ईसापूर्व पांचवीं- शताब्दी का भारत कैसा था?पाणिनि ने उस समय के लोकजीवन पर प्रामाणिक सामग्री अष्टाध्यायी में प्रस्तुत कर दी है।आचार्य वासुदेवशरण अग्रवाल का महत्त्वपूर्ण अनुसंधान-ग्रंथ है।
पाणिनिकालीन भारतवर्ष ! 
उस समय के लोकजीवन के व्यवहार,जनपद,पर्वतनाम, नदी,ग्राम नाम,नगर और वन,उस समय के सिक्के,उस समय के काल-वस्तु-क्षेत्र के परिमाण आदि के उल्लेख अष्टाध्यायी में हैं। 
वे न केवल वैयाकरण थे,अपितु लोकजीवन के द्रष्टा थे। अष्टाध्यायी में उस समय के ग्रंथ और ग्रंथकारों तथा वैदिक-शाखा-प्रवर्तकों आदि के भी उल्लेख हैं।भाषा और शब्द का इतना गहरा विवेचन उनसे पहले संसार में और किसने किया था?भाषा के इतिहास में युगप्रवर्तन का कार्य।शब्दसिद्धि,प्रत्ययों की भूमिका,प्रकृति-प्रत्यय का सिद्धांत,लिंगानुशासन,ध्वनि अथवा स्वर-प्रक्रिया,उदात्त, अनुदात्त,उच्चारण,स्वरित का वर्गीकरण,व्याकरण की वह पद्धति,भाषा का व्याकरण-संस्कार किए जाने के कारण वैदिक-भाषा छान्दस के आगे की लौकिक-भाषा को संस्कृत नाम प्राप्त हुआ!
संस्कृत-साहित्य ऐसा है,जैसे तपोवन।यहां वाल्मीकि, व्यास और कालिदास के आश्रमों की कामधेनुओं को दुह कर दुग्ध पाना है फिर दधी मंथन करके नवनीत भी बनाना है।
निश्चित ही विशेषज्ञ नहीं हूं पर रूस,अमेरिका,जापान, इंग्लेंड,जर्मन एवं अन्यान्य देशों के शोधार्थियों को प्राय: ही भारतविद्या के किसी पक्ष पर अनुसंधान के लिए आते -जाते देखा है।भारत से कितने ही मनीषी हैं,जो प्राय: ही विदेशों में भारत के सांस्कृतिक-राजदूत बन कर आते- जाते हैं।साफ बात है कि भारतविद्या के प्रति विश्व में उत्कट जिज्ञासा है और यह जिज्ञासा आगे और भी बढेगी
क्योंकि संस्कृत के उन साधकों ने कापीराइट या रोयल्टी के लिए नहीं लिखा,उन्होंने इसलिए लिखा था कि वे करुणा में डूबे थे।जो लिखा वह तपस्या के साथ लिखा था,जीवन और प्रकृति के रहस्यों में डूब कर लिखा था।
स्वभाविक ही है कि संस्कृत के मनीषी-विद्वानों का महत्व बढ रहा है,और आगे अधिक बढेगा।किन्तु अध्ययन- अनुसंधान की मैथोडोलोजी तो विकसित करनी ही होगी।
व्याकरण,वेदान्त,न्याय,साहित्य की वे ही बातें मैने भी सुन रखी हैं।परन्तु अब वहां ठहरना नहीं है,वर्तमान वैश्विक- परिवेश के साथ उन ग्रन्थों,स्थापनाओं को नयी परिभाषा देनी है ।
परिवर्तन की वेला आचुकी है।संस्कृत-साहित्य,सौन्दर्य- बोध, विश्वबोध और वैश्विक दृष्टिकोण विकसित करना ही होगा।
संस्कृत का विरोध-
वे कभी संस्कृत को आधुनिक-भाषाओं के विरोध में खडा कर देते हैं,तो कभी समतावादी-समाज के विरोध में,कभी सेकुलरवाद के विरोध में खडा कर देते हैं।जबकि स्थिति ठीक इसके उलट है ।
संस्कृत आधुनिक-भाषाओं के संपोषण की भूमिका निभाती है,जब-जब कोई रचनाकार शब्द की गहराई में जाना चाहता है,वह संस्कृत की ओर सतृष्ण दृष्टि से निहारता है, वहीं से उसे शब्द की नई-नई संभावना की उद्भावना मिलती है।जब वैज्ञानिक को किसी वस्तु- निरीक्षण के लिए पद-रचना करनी होती है,तब वह संस्कृत की ओर दृष्टि डालता है ।
संस्कृत स्वयं समीपवर्ती आधुनिक-भाषाओं से शब्द और लय लेती रही है।जहां कहीं मूल्य की चर्चा करनी होती है , वहां संस्कृत के वाक्य लिये जाते हैं,संस्कृत-विरोधी लोग भी अपने बच्चों के नामकरण के लिये संस्कृत का सहारा लेते हैं।
संस्कृत-साहित्य ने जिस सत्य की प्रतिष्ठा की है,वह मानुष -भाव है।
कोरी आध्यात्मिक-उन्नति की बात तो प्राय: उन्होंने की है, जिन्हें संस्कृत का ज्ञान ही नहीं था,जिन्होंने संस्कृत के मूल ग्रन्थों को देखा ही नहीं।उसमें भौतिक-जीवन की संपन्नता में सबके हिस्सेदारी की बात बार-बार दोहराई गई है ।“
क्रमशः-
 पाणिनि-भाषा के इतिहास में युग परिवर्तन कार्य-भाग-2
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गतांक से आगे- 
संस्कृत-यह सभी भाषाओं की जननी है।नियमित भाषा, व्‍याकरण को देने वाली भाषा।संस्‍कृत इसलिए है कि यह संस्‍कारित है।एकदम संस्‍कारों से ओतप्रोत।टकसाली। कल्‍चर्ड। प्‍योर। गुणवाली। इसलिए इसको देवभाषा भी कहा गया है- गीर्वाणवाणी।
भारत के साथ इसका संबंध कभी टूट नहीं सकता। 1835 में जब मैकाले ने आंग्‍ल भाषा को देश में उतारा तब कलिकाता संस्‍कृत विद्यालय के श्री जयगोपाल तर्कालंकारजी ने उक्‍त विद्यालय के संस्‍थापक प्रो.एच. एच.विल्‍सन (कालिदास के नाटकों के अनुवादक, विष्‍णुपुराण,मत्‍स्‍यपुराण के संपादक,अनुवादक) को लिखा-मैकाले रूपी शिकारी आ गया है,वह हम भाषा के मानसरोवर में विचरण करने वाले हंस रूपी संस्‍कृतजीवियों पर धनुष ताने हुए हैं और हमें समाप्‍त कर देने का संकल्‍प किए हुए है। हे रक्षक! इन व्याधों से इन अध्यापक रूपी हंसों की यदि आप रक्षा करें तो आपकी कीर्ति चिरायु होगी-
अस्मिनसंस्कृत पाठसद्मसरसित्वत्स्थापिता ये सुधी
हंसा: कालवशेन पक्षरहिता दूरं गते ते त्वयि।
तत्तीरे निवसन्ति संहितशरा व्याधास्तदुच्छित्तये
तेभ्यस्त्वं यदि पासि पालक तदा कीर्तिश्चिरं स्थास्यति।।
इस पर प्रो.विल्‍सन ने जो पत्र लिखा,वह आज भी भारतीयों के लिए एक आदर्श है - 
विधाता विश्वनिर्माता हंसास्तत्प्रिय वाहनम्।
अतः प्रियतरत्वेन रक्षिष्यति स एव तान्।।
अमृतं मधुरं सम्यक् संस्कृतं हि ततोSधिकम्।
देवभोग्यमिदं यस्माद्देवभाषेति कथ्यते।।
न जाने विद्यते किन्तन्माधुर्यमत्र संस्कृते।
सर्वदैव समुन्नत्ता येन वैदेशिका वयम्।।
पंडितों की चिंता दूर करते हुए विल्सन ने यह भी लिखा-
"हमें घबराने की जरूरत नहीं है।संस्‍कृत भारत के रक्‍त में बसी है।बकरियों के पांव तले रौंदाने से कभी घास के बीज खत्‍म नहीं हो जाते-"दूर्वा न म्रियते कृशापि सततं धातुर्दया दुर्बले।"जब तक गंगा का प्रवाह इस भूमितल पर रहेगा,जन-जन में देश प्रेम प्रवाहित होता रहेगा,संस्‍कृत का महत्‍व बना रहेगा। वह कभी समाप्‍त नहीं होगी बल्कि मौका पाकर फलेगी, फूलेगी।"
मेरा मानना है कि संस्कृत सबसे बड़ी और सबसे पुरानी तकनीकी शब्दावली की व्यवहार्य भाषा है।इसके शब्द यथा रूप विश्व ने स्वीकारे हैं।जब तक संसार में पारिभाविक और पारिभाषिक शब्दों की जरूरत होती रहेगी, संस्कृत के कीर्ति कलश उनकी पूर्ति करते रहेंगे। संसार की कोई भी भाषा हो,उसके नियम संस्कृत से अनुप्राणित रहेंगे।(राग,रंग,शृंगार-श्रीकृष्ण)
प्रो.विल्‍सन ने तब जैसा कहा,वैसा आज तक कोई नहीं कह पाया।संस्‍कृत साहित्‍य का संपादन,अनुवाद का जो कार्य विल्‍सन ने किया, वह आज तक दुनिया की 234 यूनिवर्सिटीज के स्‍कोलर्स के लिए मानक और अनुकरण के योग्य बना हुआ है। और हाँ, उनके बाद दुनियाभर में 134 विदेशियों ने संस्कृत के लिये जो काम किया,उसकी बदौलत संस्कृत के अधिकांश ग्रन्थ और उसकी जानकारी विदेशी भाषाओं में पहले मिलती है और हम उन मान्यताओं को दोहराते रहे।
"भूतपूर्व वैयाकरणज्ञ-भव्य-भारत"
एक समय था,जब भारत सम्पूर्ण विश्व में प्रत्येक क्षेत्र सबसे आगे था।प्राचीन काल में सभी भारतीय बहुश्रुत, वेद-वेदांज्ञ थे।राजा भोज को तो एक साधारण लकड़हारे ने भी व्याकरण में छक्के छुड़ा दिए थे।व्याकरण शास्त्र की इतनी प्रतिष्ठा थी की व्याकरण ज्ञान शून्य को कोई अपनी लड़की तक नही देता था,यथा-
"अचीकमत यो न जानाति,यो न जानाति वर्वरी।
अजर्घा यो न जानाति,तस्मै कन्यां न दीयते"
 यह तत्कालीन लोक में ख्यात व्याकरणशास्त्रीय उक्ति है  'अचीकमत,बर्बरी एवं अजर्घा इन पदों की सिद्धि में जो सुधी असमर्थ हो उसे कन्या न दी जाये" प्रायः प्रत्येक व्यक्ति व्याकरणज्ञ हो यही अपेक्षा होती थी ताकि वह स्वयं शब्द के साधुत्व-असाधुत्व का विवेकी हो,स्वयं वेदार्थ परिज्ञान में समर्थ हो, इतना सम्भव न भी हो तो कम से कम इतने संस्कृत ज्ञान की अपेक्षा रखी ही जाती थी जिससे वह शब्दों का यथाशक्य शुद्ध व पूर्ण उच्चारण करे- 
यद्यपि बहु नाधीषे तथापि पठ पुत्र व्याकरणम्।
स्वजनो श्वजनो माऽभूत्सकलं शकलं सकृत्शकृत्॥
अर्थ- "पुत्र! यदि तुम बहुत विद्वान नहीं बन पाते हो तो भी व्याकरण (अवश्य) पढ़ो ताकि 'स्वजन' 'श्वजन' (कुत्ता) न बने और 'सकल' (सम्पूर्ण) 'शकल' (टूटा हुआ) न बने तथा 'सकृत्' (किसी समय) 'शकृत्' (गोबर का घूरा) न बन जाय। "
भारत का जन जन की व्याकरणज्ञता सम्बंधित प्रसंग "वैदिक संस्कृत" पेज के महानुभव ने भी आज ही उद्धृत की है जो महाभाष्य ८.३.९७ में स्वयं पतंजलि महाभाग ने भी उद्धृत की हैं ।
सारथि के लिए उस समय कई शब्द प्रयोग में आते थे। जैसे-सूत,सारथि,प्राजिता और प्रवेता ।
आज हम आपको प्राजिता और प्रवेता की सिद्धि के बारे में बताएंगे और साथ ही इसके सम्बन्ध में रोचक प्रसंग भी बतायेंगे ।
रथ को हांकने वाले को "सारथि" कहा जाता है।सारथि रथ में बाई ओर बैठता था,इसी कारण उसे "सव्येष्ठा" भी कहलाता था-देखिए,महाभाष्य-८.३.९७
सारथि को सूत भी कहा जाता था,जिसका अर्थ था- अच्छी प्रकार हांकने वाला।इसी अर्थ में प्रवेता और प्राजिता शब्द भी बनते थे।इसमें प्रवेता व्यकारण की दृष्टि से शुद्ध था,किन्तु लोक में विशेषतः सारथियों में "प्राजिता" शब्द का प्रचलन था। 
भाष्यकार ने गत्यर्थक "अज्" को "वी" आदेश करने के प्रसंग में "प्राजिता" शब्द की निष्पत्ति पर एक मनोरंजक प्रसंग दिया है । उन्होंने "प्राजिता" शब्द का उल्लेख कर प्रश्न किया है कि क्या यह प्रयोग उचित है ? इसके उत्तर में हां कहा है ।
कोई वैयाकरण किसी रथ को देखकर बोला,"इस रथ का प्रवेता (सारथि) कौन है ?"
सूत ने उत्तर दिया,"आयुष्मन्, इस रथ का प्राजिता मैं हूं।" 
वैयाकरण ने कहा,"प्राजिता तो अपशब्द है ।"
सूत बोला,देवों के प्रिय आप व्याकरण को जानने वाले से निष्पन्न होने वाले केवल शब्दों की ही जानकारी रखते हैं, किन्तु व्यवहार में कौन-सा शब्द इष्ट है,वह नहीं जानते । "प्राजिता" प्रयोग शास्त्रकारों को मान्य है।"
इस पर वैयाकरण चिढ़ कर बोला,"यह दुरुत (दुष्ट सारथि) तो मुझे पीडा़ पहुंचा रहा है।"
सूत ने शांत भाव से उत्तर दिया,"महोदय!मैं सूत हूं।सूत शब्द "वेञ्" धातु के आगे क्त प्रत्यय और पहले प्रशंसार्थक "सु" उपसर्ग लगाकर नहीं बनता,जो आपने प्रशंसार्थक "सूत" निकालकर कुत्सार्थक "दुर्" उपसर्ग लगा कर "दुरुत" शब्द बना लिया।सूत तो "सूञ्" धातु (प्रेरणार्थक) से बनता है और यदि आप मेरे लिए कुत्सार्थक प्रयोग करना चाहते हैं तो आपको मुझे "दुःसूत" कहना चाहिए, "दुरुत" नहीं ।
उपर्युक्त उद्धरण से यह स्पष्ट है कि सारथि,सूत और प्राजिता तीनों शब्दों का प्रचलन हांकने वाले के लिए था । व्याकरण की दृष्टि से प्रवेता शब्द शुद्ध माना जाता था। इसी प्रकार "सूत" के विषय में भी वैयाकरणों में मतभेद था । इत्यलयम् 
संलग्न कथानक के लिए "वैदिक संस्कृत" पृष्ठ के प्रति कृतज्ञ हूं।
क्रमशः-

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